Thursday, August 12, 2010

हाय रे आज के विज्ञापन ............

हमारे देश में चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया सभी माध्यम विज्ञापन की प्राथमिकता देने लगे है .इसका प्रमुख कारन है आय बढ़ाना , चाहे जैसे बढे ,पर ये ध्यान नहीं दे रहे है की विज्ञापन हमारे समाज को दूषित कर रहा है .हा ये सत्य है की विज्ञापन उपभोगता के gyan में bridhi karata है ,पर aslil विज्ञापन समाज को दूषित bhi karta है .atah sarkar विज्ञापन achar sanhita jald bana कर aslilta को dur karne ka paryash kare .

Tuesday, January 12, 2010

हमारे समाज में सेक्स के बारे में या उससे संबंधित विषयों पर खुलकर बातचीत करना सामान्य रूप से अच्छा नहीं माना जाता। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े अभिभावक भी अपने बच्चों से इस विषय पर बातचीत करने में कतराते हैं, जबकि यह आज के समय की माँग है। विद्यालयों में यौन-शिक्षा की आवश्यकता पर जो बल दिया जा रहा है, उसका प्रथम चरण घर में अभिभावकों द्वारा ही उठाया जाना चाहिये। किंतु होता यह है कि झिझक, शर्म और इस विषय पर बात करने पर होने वाली मानसिक असुविधा के चलते अधिकांश माँ-बाप इस बारे में कन्नी काट जाते हैं। उनका तर्क होता है कि समय आने पर बच्चे अपने आप सब जान जाते हैं। किंतु वे भूल जाते हैं कि आज के समय में बच्चों को यौन शिक्षा से वंचित रखना- उनके लिए कितना बड़ा खतरा मोल लेना है।

आवश्यक है कि अभिभावक अपने बच्चों के लिए ऐसा सहज वातावरण बनायें कि वे सभी तरह की (यौन संबंधी भी) जिज्ञासाएँ शांत करते हेतु उनके समक्ष अपने प्रश्न रख सकें। इस बारे में किये गये अध्ययन से पता चला है कि जिन बच्चों के अभिभावक उनसे खुलकर बातचीत करते हैं और उनकी बातें ध्यानपूर्वक सुनते हैं, ऐसे बच्चे ही सेक्स संबंधी बातें अपने अभिभावकों से कर पाते हैं। ऐसे बच्चे किशोरावस्था में यौन-खतरों से भी कम दो-चार होते हैं, बनिस्बत दूसरे बच्चों के।

अगर, बच्चों से इस संबंध में बातचीत करने में असुविधा महसूस हो रही हो तो इस संबंध में किया गया अध्ययन, विश्वसनीय दोस्तों अथवा चिकित्सक से की गई चर्चा इत्यादि काफी सहायक हो सकते हैं। इस विषय में जितना आपके ज्ञान में इज़ाफा होगा, उतनी ही सहजता से आप बच्चे से बात कर पायेंगे। अगर आप इस बारे में सहज नहीं हो पा रहे हैं तो इस स्थिति को भी बच्चे से छिपाइये मत, बल्कि कहा जा सकता है कि- `देखो! मेरे माता-पिता ने मुझसे कभी सेक्स के बारे में बातचीत नहीं की। शायद इसीलिए मैं भी सहज रूप से तुमसे इस बारे में बात नहीं कर पा रहा/रही हूँ। लेकिन मैं चाहता/चाहती हूँ कि हम इस बारे में बात करें, बल्कि सभी विषयों पर खुलकर बात करें। अत किसी भी प्रकार की जिज्ञासा हो तो बेझिझक मुझसे चर्चा की जा सकती है।'

इस संबंध में बच्चों से जितनी कम उम्र में बातचीत शुरू की जा सके- बेहतर है, और वह भी अत्यंत सहज रूप से और अधिक से अधिक जानकारी देने के हिसाब से। जैसे कि छोटे से बच्चे को जब बातचीत के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों-नाक-कान-आँख इत्यादि की जानकारी दी जाती है तो उसी वक्त साथ-साथ उसके गुप्तांगों के बारे में भी जानकारी दे दी जानी चाहये। बच्चे को शरीर के सभी अंगों के वास्तविक नाम बताएँ। बच्चे की बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसके शरीर में आने वाले सभी प्रकार के परिवर्तनों से भी उसे अवगत करवाते रहना चाहिये।

इस सबके बावजूद भी अगर आपका बच्चा इस संबंध में अपनी कौतूहल शांत करने के लिए आपके पास नहीं आता है तो बेहतर होगा कि कोई अच्छा-सा मौका देख कर आप ही शुरुआत कर दें। मसलन- अगर उसके किसी दोस्त की माँ गर्भवती है तो आप वहीं से शुरुआत कर सकती हैं- `तुमने देखा! राजू की मम्मी का पेट कितना फूल गया है, क्यूंकि उनके पेट में नन्हा-सा बेबी है। क्या तुम्हें पता है कि बेबी आंटी के पेट में कैसे गया?... '- बस इस तरह बात को आगे बढ़ाया जा सकता है।

आज की आवश्यकता है कि बच्चों को पशु-पक्षियों अथवा परियों इत्यादि की कहानियों के साथ-साथ जीवन से संबंधित तथ्यों से भी अवगत करवाया जाये। इस दिशा में जब हम बच्चों को यौन शिक्षा से जुड़े तथ्यों से अवगत करवाते हैं तो उन्हें यह भी समझाना होगा कि यौन संबंधों में एक-दूसरे की भलाई के बारे में सोचना, परवाह करना तथा उत्तरदायित्व निभाना जैसी बातों का कितना महत्व है? बच्चे से यौन संबंधों के भावनात्मक पहलू पर की गई बातचीत से मिली जानकारी के आधार पर वह भविष्य में सेक्स संबंधों से उत्पन्न किसी भी प्रकार की स्थिति या दबाव में सही निर्णय ले सकेगा।

बच्चों से सेक्स संबंधी बातचीत के दौरान, उन्हें उनकी उम्र के अनुसार जानकारी मुहैया करवानी चाहिये। मसलन 8 वर्षीय बच्चे को बढ़ती उम्र के साथ लड़के और लड़की में आने वाले अलग-अलग शारीरिक परिवर्तनों और कारणों को बताना चाहये कि शरीर में मौजूद हार्मोन्स के कारण ही लड़के और लड़की में अलग-अलग शारीरिक परिवर्तन होते हैं। इससे बच्चे, उम्र के साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तनों से घबराएँगे नहीं और ना ही विचलित होंगे। विशेष रूप से किशोरावस्था में बच्चे को यौन क्रिया से जुड़े परिणामों और उत्तरदायित्वों का अहसास करवाना आवश्यक होता है। मसलन 11 से 12 वर्ष के बच्चों के साथ की जाने वाली बातचीत में अवांछित गर्भ और उससे बचाव जैसे मसलों को शामिल करना चाहिये। इसीप्रकार वर्तमान स्थिति के साथ-साथ भविष्य में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों पर भी बच्चों के साथ बातचीत की जा सकती है। मसलन 8 वर्षीय बच्ची से मासिक धर्म के बारे में बातचीत की जा सकती है।

कई बार अभिभावक विपरीत सेक्स अर्थात पिता बेटी से तथा माँ बेटे से यौन शिक्षा संबंधी बातचीत करने में सकुचाते हैं। यह सही नहीं हैं। अपनी झिझक को अपने और बच्चे के आड़े मत आने दीजिये। इस बारे में कोई विशेष नियम नहीं है कि पिता ही बेटे से या माँ ही बेटी से इस विषय पर बातचीत करे। जैसा सुभीता हो या बच्चा जिसके अधिक करीब हो, वही उससे इस संबंध में बात कर सकता है।

जेंडर के साथ-साथ इस बात की भी चिंता मत कीजिये कि आप बच्चे की सभी जिज्ञासाओं को शांत कर पाएंगे या नहीं। इस विषय पर आप कितना जानते हैं, से महत्वपूर्ण है कि आप बच्चे को सवालों का जवाब किस तरह से दे रहे हैं? अगर आप बच्चे को यह समझाने में सफल हो जाते हैं कि घर में सेक्स समेत किसी भी प्रकार के प्रश्न पूछने पर उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं है, तो समझिये आपने किला फतह कर लिया है। हाँ, बच्चों से इस बारे में बात करते हुए कभी भी अपना उदाहरण नहीं देना चाहिये।

सेक्स संबंधी बातचीत में बच्चों को विशेष तौर पर `सेफ़ सेक्स' के बारे में बताना ज़रूरी है कि सेफ़ सेक्स का अर्थ एचआईवी तथा अन्य सेक्स संबंधित संक्रामक रोगों से बचाव है। इस संबंध में इन रोगों से संबंधित जानकारी भी दे देनी चाहिये और इस संबंध में कंडोम की भूमिका का खुलासा भी कर देना चाहिये। लगे हाथ बच्चों, विशेषकर लड़कियों के साथ की जाने वाली बातचीत में इस बात पर भी बल दिया जाना चाहिये कि यह धारणा गलत है कि पहली बार यौन संबंध बनाने पर गर्भ ठहरने की संभावना नहीं रहती। इस संबंध में भी कंडोम और गर्भ निरोधक गोलियों की भूमिका पर पर्याप्त प्रकाश डालना बेहतर रहता है। इसके अतिरिक्त, बच्चों को बताएँ कि परस्पर स्नेह और प्रेम दर्शाने का एकमात्र तरीका सेक्स ही नहीं है बल्कि और भी बहुत से तरीके हैं।

यौन शिक्षा के साथ-साथ सेक्स से जुड़ी मान्यताओं (वेल्यूज़) और अपनी संस्कृति से भी बच्चों को अवगत करवाना ज़रूरी रहता है। बच्चे इन पर चाहे अमल ना करें, किंतु उन्हें इनके बारे में जानकारी तो रहेगी, जिसका उनकी जिंदगी पर पर्याप्त असर रहेगा।

Monday, November 23, 2009

सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी समाज
हमारी सदी सूचना क्रांति की सदी है. आज पूरी दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी का डंका बज रहा है. ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ का आदर्श और कहीं चरितार्थ होता हो या नहीं, कम से कम सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में तो चरितार्थ होता ही है. मोबाइल फोन, कंप्यूटर और इंटरनेट इस क्रांति के वाहक हैं. हालाँकि हमारे देश में सामान्यतः सूचना प्रौद्योगिकी का मतलब कंप्यूटर समझा जाता है. यह कुछ ग़लत भी नहीं है. क्योंकि कंप्यूटर चिप ही सूचना क्रांति का आधार है. सूचना प्रौद्योगिकी के कारोबार का माध्यम बनने ने अनंत संभावनाओं के द्वार पहले ही खोल दिए थे, रही-सही कसर इसके मनोरंजन का साधन बनने ने पूरी की, जिसने छोटे-छोटे बच्चों से लेकर प्रौढ़ों तक को अपने सम्मोहन में जकड़ लिया. इंटरनेट ने तो गृहणियों और बुज़ुर्गों तक पर अपना रंग चढ़ा दिया. भारतीय अभिजात्य वर्ग के जातिगत अभिमान और उनकी शारीरिक श्रम के प्रति चिरस्थायी घृणा का सूचना प्रौद्योगिकी के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. इसके चलते कंप्यूटर तंत्र के विकास में हार्डवेयर की घोर उपेक्षा हुई. नतीजतन हार्डवेयर का मूल्य अन्य देशों की अपेक्षा खासा ज्यादा रहा. जिससे मध्यमवर्ग के आदमी के लिए भी कंप्यूटर खरीदना एक विलासिता ही रहा. दूसरी तरफ, हमारे अभिजात वर्ग की जनभाषा से घृणा ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर से दूर रखा. कंप्यूटरी में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के विषय में जो प्रयास किए भी गए, उनका भी इन्होंने प्रचार नहीं किया. और हिंदी कंप्यूटरी के संबंध में भ्रमजाल फैलाया. उक्त दोनों कारणों से कंप्यूटर संस्कृति की पैठ समाज में व्यापक और निम्न स्तरों तक नहीं हो पाई. फलस्वरूप इसने भारत में डिज़िटल विभाजन पैदा किया, जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इसने एक ओर कुशल और महँगे श्रम का बढ़ता बाज़ार बनाया तो दूसरी ओर अकुशल रोज़गार का लगभग पूरी तरह खात्मा कर दिया. जिससे हमारे यहाँ पहले से ही मौजूद आर्थिक असमानता की खाई और भी तेज़ी से चौड़ी होती चली गई. आम हिंदी भाषी में जहाँ कंप्यूटर के प्रति आकर्षण है, वहीं अंग्रेज़ी के वर्चस्व के कारण असहायता भी दिखाई देती है. इस असहायता और हीन भावना को बढ़ाने में अंग्रेज़ी परस्त लोगों के फैलाए झूठों का भी योगदान है. जिनमें से सबसे ज़्यादा प्रचारित और प्रचलित झूठों में से कुछ इस प्रकार हैं— एक तरफ तो यह कि एक, हिंदी में कंप्यूटर पर काम करना संभव ही नहीं है. दो, यदि है भी तो केवल निचले स्तर का काम ही संभव है. तीन, उच्च स्तर की सारी कंप्यूटरी केवल अंग्रेज़ी में होती है. चार, सारे मूल सॉफ्टवेयर अंग्रेज़ी में बनते हैं और प्रोग्रामिंग तो केवल अंग्रेज़ी में होती है. और यदि आप यह साबित कर दें कि यह संभव है तो दूसरी तरफ यह कि— हिंदी में काम करना बहुत मुश्किल है. क्योंकि पहले तो तुम्हें हिंदी टाइप करना नहीं आएगा. दूसरे, अगर आ भी गई तो हिंदी फोंट नहीं मिलेगा. तीसरे, यदि मिल भी गया तो तुम इंटरनेट ब्राउज़ नहीं कर सकोगे, ई-मेल नहीं भेज सकोगे. चौथे, ऑपरेटिंग सिस्टम तो केवल अंग्रेज़ी में चलता है. यदि तुमने हिंदी का ऑपरेटिंग सिस्टम जुगाड़ भी लिया तो दूसरे कंप्यूटरों से कनेक्ट कैसे करोगे क्योंकि वे तो अंग्रेज़ी के ऑपरेटिंग सिस्टम पर चल रहे हैं. यदि आप यह भी झेल लें तो उनका ब्रह्मास्त्र तैयार है कि तुम्हें कंप्यूटर की हिंदी ही समझ में नहीं आएगी. यह हौवा खड़ा कर अंग्रेज़ीदाँ लोग झूठ के इस पुलिंदें को कुछ यूँ प्रचारित करने में सफल रहे हैं कि यदि तुम हिंदी-हिंदी चिल्लाओगे तो देश तो पीछे रह ही जाएगा, तुम खुद भी मोटी तनख्वाहों और विदेशी दौरों से वंचित रह जाओगे. इसलिए बेहतर यही है कि तुम अंग्रेज़ी ही सीख लो और उसी में अपना काम करो. इनमें से कुछ झूठ अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए फैलाए गए तो कुछ अज्ञानतावश. ख़ैर, यह कौआरौर ज़्यादा समय तक समाज को नहीं बरगला सकती. खासकर इसलिए भी कि इसने सूचना क्रांति के प्रसार को बुरी तरह महानगरों तक सीमित कर दिया है. आज भारतीय कंपनियों से ज्यादा अमरीकी कंपनियों को हिंदी की चिंता सता रही है. क्योंकि वे जानती हैं कि हिंदी के ज़रिए पूरे दक्षिण एशियाई उपमहाद्वीप के बाज़ार के दरवाज़े और तेज़ी से खुलते हैं. कारोबार और मनोरंजन की दुनिया आम जनता की दुनिया है. यह केवल कुछ सरकारी नौकरशाहों और अभिजात्य लोगों की सनक पर टिकी नहीं रह सकती. यही कारण है कि आज लगभग हर अमरीकी और यूरोपीय कंपनी अपने उत्पादों में हिंदी समर्थन दे रही है. और उनके हिंदी संस्करण बाज़ार में उतार रही है. इस वास्तविकता के बारे में हमारा हिंदी समाज क्या सोचता है? तकनीक और विज्ञान विरोधी हिंदी समाज को ऐसा लगा—‘दीवान-ए-सराय 01 के संपादक के शब्दों में कहें तो’ – “जैसे कलिकाल आ धमका है. अपनी जानी-पहचानी दुनिया ध्वंस के कगार पर है, नैतिक वज्रपात हो रहे हैं, दैनंदिन ‘नंगई’ हो रही है, अपसंस्कृति फैल रही है और न जाने क्या-क्या. कुल मिलाकर लगता है कि ‘विश्वायन’ या वैश्वीकरण के रूप में सर्वथा शत्रु-जीवी हिंदी को एक नया शत्रु, सर्वशक्तिमान, सर्वोपस्थित खलनायक मिल गया है. इस विचार दृष्टि के प्रभुत्व का एक साफ़ घाटा यह हुआ है कि संचार के अभिनव रूप भी अविच्छिन्न तौर पर विश्वायन-जन्य दीगर हिंसाओं से जुड़कर एकमुश्त निंदा के शिकार हो गए हैं.”(1) लेकिन जब हिंदी समाज को सूचना क्रांति में रोज़गार के अवसर, विदेशी दौरे और अनाप-शनाप पैसा दिखा तो फिर शुरू हुआ, किसी तरह इस भीड़ में ठस जाने का सिलसिला. यानी कैसे भी अपने बिचुवा को कोई कंप्यूटर कोर्स करा दो, फिर उसे कहीं फिट करा दो, बस हो गए वारे न्यारे. बदकिस्मती से कंप्यूटर की दुनिया में फिट करना उतना आसान नहीं है. यहाँ आपकी काबलियत और मेहनत ही आपको टिका के रख सकती है.

Tuesday, August 18, 2009

द हिंदू से : कहां खो गए हमारे राष्ट्रीय स्मारक ?

इस बात पर विश्वास करना मुश्किल है कि भारतीय पुरातत्व सर्वे (एएसआई) द्वारा संरक्षित देश के 35 राष्ट्रीय स्मारक, जिनमें गुंबद, मंदिर और समाधियां शामिल हैं, लापता हैं। हालांकि यह बात और किसी ने नहीं, स्वयं केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने स्वीकारी है। विडंबना यह है कि अधिकांश लापता स्मारक दिल्ली के हैं, जहां कि एएसआई का मुख्यालय स्थित है।भारत के अति प्राचीन सभ्यता होने के बावजूद यहां राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों की संख्या पहले ही काफी कम है (3,675) और अब इसमें से कुछ का गायब हो जाना स्वीकार्य नहीं है। इन स्मारकों के लापता होने की वजह शहरीकरण, व्यावसायीकरण और विकास परियोजनाओं का क्रियान्वयन है।
अपर्याप्त निगरानी और संरक्षण इसकी अन्य वजहें हैं। वर्ष १९८४ में आरएन मिर्धा कमेटी ने स्मारकों की सुरक्षा के लिए नौ हजार कर्मचारियों को नियुक्त करने की सिफारिश की थी, लेकिन 2008 तक एएसआई केवल चार हजार कर्मचारियों को ही नियुक्त कर पाया था। स्मारकों के संरक्षण के लिए वित्तीय प्रावधान तो बढ़ाने ही चाहिए, लेकिन यही पर्याप्त नहीं होगा।
एएसआई के पास तकनीकी विशेषज्ञों की भी भारी कमी है जिससे भी स्मारकों के संरक्षण के प्रयासों को धक्का लगा है। अब वक्त आ गया है कि स्मारकों के संरक्षण के प्रयासों को स्थानीय क्षेत्र विकास कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाए, ताकि उस क्षेत्र को हेरिटेज जोन के रूप में विकसित किया जा सके।
‘द हिंदू’ भारत का प्रमुख अंग्रेजी अखबार है।

Monday, September 15, 2008

¨कवदंती है कि शिव बाबा ने इस गांव को एक वरदान तथा एक शाप दिया था, वरदान यह कि इस गांव में कोई आक्रांता नहीं आ सकता और श्राप था कि परिवार के दो भाइयों में से सिर्फ एक का ही वंश चलेगा। ये दोनों सडकें जहां एक-दूसरे को 90 अंश के कोण पर काटती हैं, वह मिझौडा चौराहा के नाम से जाना जाता है। इस चौराहे को सबसे पहले आबाद करने वाले लोगों में रामखेलावन परचून वाले, कलीम खां साइकिल मिस्त्री, मिठाई लाल मिठाई वाले, सरजूपान-बीडी-सिगरेट तथा गुटखा वाले, डा. जमशेद तो सभी प्रकार के इलाज के लिये पूरे जवार में जाने जाते हैं, जैसी मरीज की हैसियत वैसी दवा।
राम खेलावन परचून वाले की दुकान के किनारे एक विशालकाय बरगद का पेड है जिसके चारों ओर उन्होंने संतान की आशा में बरगद देवता के चारों ओर पक्का चबूतरा बनाकर पूर्वमुखी एक छोटा सा शंकर जी का मंदिर बना दिया है। दरारों तथा चबूतरे के बैठ जाने के कारण मंदिर भी एक ओर झुक गया है, मंदिर के शीर्ष पर लगा त्रिशूल जो आसमान को तनकर सीधा देखा करता था वह भी तिरछा हो गया है। इसी चबूतरे के पश्चिमी कोने पर कल्लू नाई की गुमटी का अस्तित्व है। उसकी कई जगह से टूटी-फूटी बाबा आदम के जमाने की कुर्सी पर बैठते ही आगंतुक का स्वर उभरता है-
- बाल कटवाना है। दाढी बनवानी है।
- मुन्डा करवाना है। रूसी बहुत हो गई है।
और जैसे ही उसके हाथों में कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को स्पर्श करके उस्तरा या कैंची चलाना शुरू किया नहीं कि उस व्यक्ति को नींद आने लगती, कल्लू को व्यक्ति को हिला-डुला कर जगाना पडता।
- काका, सोइये नहीं! - दादा, आंख खोले रखिए! - मुन्नू, उस्तरा लग जायेगा, सोओ नहीं! एक दिन प्रधान जी की दाढी बनाने के बाद मिठाई लाल की दुकान पर चाय पीने चला गया, वहीं साइकिल मिस्त्री कलीम खां मिल गये। - मिस्त्री, आज आप से चाय पीने को मन कह रहा है, कल्लू बोला। कल्लू भाई, अभी तक बोहनी नहीं हुई है। तुम्हारे यहां तो सवेरे से ही भीड लगी है।
- हां मिस्त्री, दुआ करो इसी तरह भीड लगती रहे, सुमन का हाथ अबकी जाडा में जरूर पीला करना है।
- जरूर ठाकुर.. बिटिया जितनी जल्दी घर से चली जाय उतना ही अच्छा है।
- अच्छा अब चल मिस्त्री, गुमटी के पास दो-तीन लोग आ गये हैैं। चाय का पैसा मिठाई लाल को देकर वह अपनी गुमटी की ओर बढने लगा, गुमटी के अंदर प्रधान जी कुर्सी पर बैठे-बैठे अभी तक सो रहे थे। प्रधान जी ने हडबडा कर आंखें खोल दीं और उठते हुए बोले- तुम्हारे हाथ में जैसे जादू है। तुमने हाथ लगाया नहीं कि नींद आने लगती है।
- प्रधान जी, सब बगल वाले भोले शंकर की कृपा है।
प्रधान जी कल्लू को दाढी की बनवायी देकर टेलर की दुकान की ओर मुड गये।
वह मिझौडा चौराहे पर साप्ताहिक बाजार का दिन था। लोग सप्ताह भर का खाने का सामान तथा अन्य जरूरत की वस्तुएं इसबाजार से लेकर रख लेते हैं।
कल्लू की भी आज के दिन पौ-बारह रहती है, काफी कमाई हो जाती है। उसकी पत्नी कलावती दोपहर का भोजन चौराहे पर लाकर दे जाती है, आज भी वो खाना लेकर आयी थी लेकिन काम अधिक होने के कारण कल्लू ने कहा- किनारे रख दो बाद में खायेंगे।
कलावती खाने का गोल डिब्बा किनारे रख कर चली गयी, उसका घर कोटवा से आगे कोराडचक में था। भीड के कारण कल्लू को आज सिर उठाने की भी फुरसत नहीं मिली। शाम होते-होते भीड धीरे-धीरे काई की तरह छंटने लगी। कल्लू का नियम था कि वह शाम को सब्जी लेता था क्योंकि देहात से सब्जी बेचने आये लोग जब घर जाने लगते हैं तब बची हुई सब्जी सस्ते में बेच जाते हैं। आज कल्लू ने और दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक सब्जियां खरीदी थीं क्योंकि कल उसकी बेटी सुमन के रिश्ते के लिए सोनावां से कुछ लोग आने वाले हैं। कल्लू ईदगाह के सामने तक ही पहुंचा था कि चीनी मिल की ओर से हवा से बातें करते एक ट्रक ने कल्लू को ऐसी टक्कर मारी कि वह कटे पेड की तरह धराशायी हो गया। ट्रक उसके सीने तथा सिर को रौंदता हुआ मिझौडा चौराहे की ओर तेजी से भागने लगा, लेकिन बाजार से लौट रहे कुछ लोगों ने उस ट्रक को किसी को रौंदते हुए देख लिया था। उन लोगों ने शोर मचाना शुरू किया। शोर सुनकर अच्छी खासी भीड सडक पर आ गयी, विवश होकर ड्राइवर को ट्रक रोकना पडा, ट्रक के रुकते ही भीड ने ट्रक को घेर लिया, इतनी देर में मिझौडा चौराहे की पुलिस चौकी से दो पुलिस वाले आ गये और ड्राइवर को ट्रक से उतार लिया कि भीड कहीं उसकी जान न ले ले। भीड के गुस्से को शान्त करने के लिए पुलिसिया चाल चलते हुए, पुलिस वालों ने उसको दो-तीन थप्पड भी मारे और बोला- साले.. शराब पीकर ट्रक चलाते हो। भीड का गुस्सा शांत होते न देख दोनों पुलिस वालों ने ड्राइवर को मोटरसाइकिल पर बैठा कर वहां से रफूचक्कर होना ही उचित समझा, भीड उत्तेजित होती ही जा रही थी, अपना गुस्सा ट्रक पर उतारा और उसे आग की लपटों के हवाले कर दिया, भीड दुर्घटना-स्थल की ओर बढने लगी, वहां जाकर लोग सन्न रह गये, अरे! यह तो कल्लू है। भीड से किसी की आवाज उभरी। कल्लू खून से लथ-पथ पडा था। उसकी जीवन-लीला समाप्त हो चुकी थी। यह खबर उसके घर तक पहुंची तो उसकी पत्नी बच्चों के साथ बदहवास सी घटना-स्थल पर पहुंची। उसे काठ सा मार गया। बच्चों की चीत्कार से वातावरण बोझिल होकर गमगीन हो गया..। सरकारी औपचारिकताओं के बाद दूसरे दिन जब कल्लू का निर्जीव शरीर लाया गया, तो ठाठें मारती भीड थी जो कल्लू के व्यवहार तथा लोकप्रियता की परिचायक थी। अंतिम संस्कार तथा अनुष्ठान सम्पन्न हो गये। एक दिन कलावती अपने घर के सामने झाडू लगाने के बाद एक कोने में बैठे थी। कलावती ने सुमन की ओर देखा और चिंताओं में खो गयी। सुमन भी मां को देखकर शायद सोचने लगी थी- माई, अब मेरा क्या होगा?
मां की ममता ने शायद सुमन के मन की आवाज को सुन लिया था, वह सुमन की ओर देखकर मन ही मन बोली- बेटी, मैं हूं न..?
वह मन ही मन कह तो गई कि मैं हूं ना..? लेकिन यकायक चौंक उठी क्योंकि न तो उसके पास खेती-बाडी थी और न ही रोजगार का कोई और साधन था। अंधेरे में परछाइयां भी साथ छोड देती हैं, नाते-रिश्तेदार भी मुंह मोड लेते हैं।
दिन बीतते गये और कलावती भी इन अनुभवों से गुजरते हुए अपनी मंजिल की तलाश में जुट गयी। और एक सुबह क्रान्तिकारी निर्णय लेते हुए उसने हाथों में कैंची, कंघा तथा ब्लेड वाला उस्तरा लिया और उसने सबसे पहले अपने पुत्र सुनील को कुर्सी पर बैठाकर उसके बाल काटना शुरू किया। आज से काफी पहले एक दिन की बात है कि जब कल्लू जीवित था, कलावती किसी बात पर मनोविनोद करती हुई बोली- तुम नाऊ ठाकुर हो तो मैं भी नाउन ठकुराइन हूं।
- तो क्या तुम चौराहे पर जाकर गुमटी में मेरी तरह बाल काट सकती हो..? दाढी बना सकती हो? क्यों नहीं? चुहल-चुहल में उसने कैंची तथा कंघा उठाया और अपने बेटे अनिल के बाल काटने लगी। कल्लू ने अपनी पत्नी की ओर देखा और मुस्कुरा कर कुछ सोचने लगा, अरे तुम तो सचमुच.. और फिर एक दिन तो हद ही हो गयी जब कल्लू शाम को अपनी दुकान बढा कर घर आया तो कलावती उसकी दाढी की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोली- दाढी बढा कर साधू बनकर जंगली बाबा के मंदिर में बैठना है क्या..? - चार-पांच दिन से बडी भीड हो रही है, सहालग की वजह से। फुरसत ही नहीं मिलती कि अपनी दाढी बना लूं। - तुम तो नाउन ठकुराइन बनती हो तुम ही बना दो ना..? - एकदम बना सकती हूं।
- अरे..! नहीं.. नहीं। मैं तो ऐसे ही चुहल कर रहा था। कल्लू बोला। लेकिन कलावती ने गजब की मुस्कुराहट के साथ धीरे से कुछ कहा जिसे सुनकर वह लोट-पोट हो गया और बोला- अच्छा, अगर ऐसी बात है तो.. और कलावती सचमुच उसकी दाढी बनाने लगी। कल्लू हैरान सा उसे देखता रह गया।
आज कलावती ने मिझौडा चौराहे पर बिना किसी शर्म व हया के बाकायदा लोगों के बाल काटने तथा दाढी बनाने का काम शुरू कर दिया था और वह उस इलाके की पहली महिला नाई बन गयी। दूर-दूर वे लोग उसे देखने आते। सकुचाते हुए खाली कुर्सी की ओर बढते मगर कलावती के हुनर के कायल होकर लौटते। उसके इस आश्चर्यचकित करने वाले गैर-पारम्परिक क्रांतिकारी निर्णय पर उसके बिरादरी के लोग नाक-भौं सिकोडने लगे। कुछ लोग तो आग-बबूला हो रहे थे, बिरादरी से बाहर रहने की बातें कर रहे थे, लेकिन वह उनकी परवाह किये बिना अपनी मंजिल की ओर बढती रही..। धीरे-धीरे कल्लू की उस गुमटी में पहले जैसी ही भीड की रौनक फिर लौट आयी। shivendu rai

Friday, September 12, 2008

"आ जाओ..."

अन्धकार 

यह आता सबके जीवन में ,
सबको बहुत बैर है इससे ,
जिसकी जिन्दगी में आया ,
समझो दुःख उसके लिए लाया ,
पर क्यों ? क्यों हम सब डरते है,
पर गज़ब है , देखकर कहती हूँ मै 
अगर आज अन्धकार है तो कल ,
होगा उजाला भी,
जो हमें देगा बहुत से फल.................................!!!!!!!